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श्री सिद्धचक्र विधान
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पुद्गल निरमापितवर्णयुक्त, विधिनामरचित तासों विमुक्त। पुरुषांकित चेतनमय प्रदेश, तु शुध्ध शरीर नमूं हमेश ॥
ॐ ह्रीं अहं शुद्धशरीराय नमः अर्घ्यं ॥१५॥
दोहा
पूरण के वल ज्ञानगम, तुम स्वरुप निर्बाध । और ज्ञान जानैं नहीं, नमों सिद्ध तन आध॥१६॥
ॐ ह्रीं अहँ शुद्धप्रमेयाय नमः अर्घ्यं ॥१६॥ दरशन ज्ञान सुभेद हैं चेतन लक्षण योग। पूरण भई विशुद्धता, नमों शुद्ध उपयोग ॥१७॥
ॐ ह्रीं अहँ शुद्धपयोगाय नमः अर्घ्यं ॥१७॥ परद्रव्य जनित भोगोपभोग, ते खेदरूप प्रत्यक्ष योग। निजरस स्वादन है भोगसार, सो भोगो तुम हम नमस्कार ॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धभोगाय नमः अयं ॥१८॥
दोहा निर्ममत्व युगपद लखो, तुम सब लोकालोक। शुद्ध ज्ञान तुमको लखो, नमों शुद्ध अवलोक ॥१९॥
. ॐ ह्रीं अहँ शुद्धवलोकाय नमः अर्घ्यं ॥१९॥ निरइच्छुक मन वेदी महान, प्रज्वलित अग्नि है शुक्लध्यान। निर्भेद अर्घ दे मुनि महान, तुमही पूजत अर्हन्त जान॥ .. ॐ ह्रीं अहँ शुद्धप्रज्वलितशुक्लध्यानाग्निजिनाय नमः अयं ॥२०॥
दोहा आदि अन्त वर्जित महा, शुद्ध द्रव्य की जात। स्वयं सिद्ध परमात्मा, प्रणमूं शुद्ध निपात ॥२१॥
__ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धनिपाताय नमः अर्ध्य ॥२१॥