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श्री सिद्धचक्र विधान
जबलग परजाया भेद नाना धराया,
इक शिवपद माहीं भेद आभास नाहीं। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई,
भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥
ॐ ह्रीं सिद्धअभेदगुणाय नमः अध्यं ॥१८४॥ अनुपम गुणधारी लोक संभाव टारी,
सुरनर मुनि ध्यावें सो नहीं पार पावै। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई,
__ भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥
ॐ ह्रीं सिद्धअनुपमगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१८५॥ . जिस अनुभव सरसै धार आनंद बरसै,
अनुपम रस सोई स्वाद जासों न कोई। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, .
भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ . ॐ ह्रीं सिद्धअमृततत्वाय नमः अर्घ्यं ॥१८६॥ सब श्रुत विस्तारा जास माहीं उजारा,
यह निजपद जानो आत्म संभाव मानो। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई,
भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ ॐ ह्रीं सिद्धश्रुतप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥१८७॥
दोधक छन्द जीव अजीव सबै प्रतिभासी, केवल जोति लहो तम नाशी। सिद्ध समूह नमूं शिरनाई, पाप कलाप सबै खिर जाई॥
ॐ ह्रीं सिद्धकेवलप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥१८८॥