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श्री सिद्धचक्र विधान
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लक्ष्मीधरा छन्द जीव आप भावसों जुकर्म की क्रिया करेत,
अंग वा उपंगसो शरीर के उदय समेत। सो औदारिकी शरीर अंग वा उपंगनाश,
सिद्धरूप हो नमो सुपाईयो अबाधवास॥ ॐ हीं औदारिकअङ्गोपाङ्गसहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥५॥ देव नारकी शरीर माँस रक्त से न होत,.
- तासको अनेक भाँति आप दे सकै उद्योत। वैक्रियिक सो शरीर अंग वा उपंगनाश, . . सिद्धरूप हो नमो सु पाईयो अबाधवास॥
ॐ ह्रीं वैक्रियिकअङ्गोपाङ्गाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥८६॥ साधु के शरीर मूलतें कढ़े प्रशंस योग,
संशय को विध्वंसवार केवलो सुलेत भोग। आहार कसो शरीर अंग वा उपंगनाश, . सिद्धरूप हो नमो सु पाईयो अबाधवास॥ - ॐ ह्रीं आहारकअङ्गोपाङ्गरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥४७॥
गीता छन्द संहनन बन्धन हाड होय अभेद वा सो नाम है, नाराच कीली वृषभ डोरी बाँधने की ठाम है। है आदि को संहनन जो जिस वन सब परकार हो, यह त्याग बन्धन अबन्ध निवसो परम आनन्द धार हो। ॐ ह्रीं वज्रवृषभनाराचसंहननरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥८॥