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.. श्री सिद्धचक्र विधान
निरभय हो निर आश्रयी, नि:संगी निर्बन्ध। निज साधन साधक सुगुन, परसों नहिं सम्बन्ध॥
___ॐ ह्रीं अहँ जिमनि:संगाय नमः अर्घ्यं ॥४२॥ अन्तराय विधि नाशकैं, निजानन्द भयो प्राप्त । सन्त नमैं करजोर युग, भव-दुःख करो समाप्त ॥
ह्रीं अहँ जिनोद्वाहाय नमः अर्घ्यं ॥४३॥ .. शिवमारग में धरत हो, जग मारगतें काढ़। धर्मधुरन्धर मैं नमू, पाऊँ भव वन बाढ़॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनवृषभाय नमः अर्घ्यं ॥४४॥ धर्मनाथ धर्मेश हो, धर्म तीर्थ करतार। . रहो सु थिर निज़ धर्म में, मैं बन्दूं सुखंकार।
ॐ ह्रीं अहँ जिनधर्माय नमः अर्घ्यं ॥४५॥ जगत जीव विधि धूलि सों, लिप्त न लहैं प्रभाव। रत्नराशिसम तुम दिपो, निर्मल सहज सुभाव॥
. ॐ ह्रीं अहँ जिनरत्नाय नमः अर्घ्यं ॥४६॥ तीन लोक के शिखर पर, राजत हो विख्यात। तुमसम और न जगत् ममें, बड़ा कोई दिखलात॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनौरसे नमः अर्घ्यं ॥४७॥ इन्द्रिय मन व्यापार बहु, मोह शत्रु को जीत। लहो जिनेश्वर सिद्धपद, तीन लोक के मीत॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनेशाय नमः अर्घ्यं ॥४८॥ . चारि घातिया कर्म को, नाश कियो जिनराय। घाति अधाति विनाश जिन, अग्र भये सुखदाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह जिनाग्राय नमः अर्घ्यं ॥४९॥