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श्री सिद्धचक्र विधान
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बिन कारण तारण-तरण दीप्त रूप भगवान। इन्द्रादिक पूजत चरण, करत कर्म को हान॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनदीप्तरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३४॥ जैसे कुञ्जर चक्र के, जाने दल को साज। चार संघ नायक प्रभू, बन्दूं सिद्ध समाज॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनकुंजराय नमः अयं ॥३५॥ दीप्त रूप तिहुँलोक में, है प्रचण्ड परताप। भक्तन को नित देत हैं, भोगैं शिवसुख आप॥
ह्रीं अहँ जिनार्काय नमः अर्घ्यं ॥३६॥ . रत्नत्रय मग साधकर, सिद्ध भये भगवान। पूरण निजसुख धरत हैं, निज में निज परिणाम॥
ॐ ह्रीं अर्ह जिनधौर्याय नमः अर्घ्यं ॥३७॥ तीन लोक के नाथ हो, ज्यूँ तारागण सूर्य। शिव सुख पायो परमपद, बन्दौं श्रीजिन धूर्य। - ॐ ह्रीं अहँ जिनधूर्याय नमः अर्घ्यं ॥३८॥
पराधीन बिन परम पद, तुम बिन लहैं न और। उत्तमातमा मैं नमू, तीन लोक शिरमौर ॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥३९॥ - जहाँ न दुःख को लेश है, तहाँ न परसों कार।
तुम बिन कहूँ न श्रेष्ठता, तीनलोक दुःख टार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ त्रिलोकदुःखनिवारणाय नमः अर्घ्यं ॥४०॥ पूर्ण रूप निज लक्ष्मी, पाई श्री जिनराय। परम श्रेय परमातमा, बन्दूं शिवसुख साज॥ . ॐ ह्रीं अहँ जिनवर्याय नमः अर्घ्यं ॥४१॥