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श्री सिद्धचक्र विधान
गणधरादि सेवत महा, तुम आज्ञा शिर धार। अधिक-अधिक जिनपद लहो, नमूं करो भवपार॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनाधिराजाय नमः अर्घ्यं ॥२६॥ परम धर्म उपदेश करि, प्रगटायो शिवराय। श्री जिन निज आनन्द में, वर्ते बन्दूं ताय॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनशासनेशाय नमः अर्घ्यं ॥२७॥ .. पूरण पद पावत निपुण, सब देवन के देव। मैं पूजूं नित भावसों, पाऊँ शिघ्र स्वयमेव॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनदेवाधिदेवाय नमः अर्घ्यं ॥२८॥ तीन लोक विख्यात हैं, तारण-तरण जिहाज। . तुम सम देव न और हैं, तुम सब के शिरताज॥ _ ॐ ह्रीं अर्ह जिनाद्वितयाय नमः अयं ॥२९॥ तीन लोक पूजत चरन, भाव सहित शिर नाय। इन्द्रादिक थुति करि थके, मैं बन्दूं तिस पाय॥
. ॐ ह्रीं अहँ जिनाधिनाथाय नमः अर्घ्यं ॥३०॥ तुम समान नहीं देव है, भविजन तारन हेत। चरणाम्बुज सेवत सुभग, पावैं शिवसुख खेत॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनेन्द्रबिंबंधनाय नमः अर्घ्यं ॥३१॥ भवाताप करि तप्त हैं, तिनकी विपति निवार। धर्मामृत कर पोषियो, वरतें शशि उनहार ॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनचन्द्राय नमः अर्घ्यं ॥३२॥ मिथ्यातम करि अन्ध थे, तीन लोक के जीव। तत्त्व मार्ग प्रगटाइयो, रवि सम दीप्त अतीव॥
ॐ ह्रीं अहँ जिनादित्याय नमः अर्घ्यं ॥३३॥