________________
१७०]
श्री सिद्धचक्र विधान
जो तुम चेतनता परकाशी, न पावै ऐसी जगवासी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥
___ॐ ह्रीं पाठकएकत्वचेतनाय नमः अयं ॥३६०॥ ज्ञान दर्शन स्वरूपी हो, असाधारण अनूपी हो। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥
ॐ ह्रीं पाठकएकत्वचेतनस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३६१॥ गहै नित निज चतुष्टय को, मिलै कबहूँ नहीं परसों। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया।
ॐ ह्रीं पाठकएकत्वद्रव्याय नमः अर्घ्यं ॥३६२॥ . स्वपद अनुभूति सुख रासी, चिदानन्द भाव परकासी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥
ॐ ह्रीं पाठकचिदानन्दाय नमः अयं ॥३६३॥ अन्त पुरुषार्थ साधक हो, जन्म मरणादि बाधक हो। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥
ॐ ह्रीं पाठकसिद्धसाधकाय नमः अर्घ्यं ॥३६४॥ स्वआतम ज्ञान दरशाय, ये पूरण ऋद्धि पद पाय। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया।
ॐ ह्रीं पाठकऋद्धिपूर्णाय नमः अर्घ्यं ॥३६५॥ सकल विधि मूर्छा त्यागी, तुम्ही निरग्रन्थ बडभागी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥
ॐ ह्रीं पाठकनिर्ग्रन्थाय नमः अयं ॥३६६॥ निजाश्रित अर्थ जा नाहीं, अबाधित अर्थ तुम माहीं। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया।
ॐ ह्रीं पाठकअर्थविधानाय नमः अर्घ्यं ॥३६७॥
TRUJILTILI