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श्री सिद्धचक्र विधान
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वीतराग परिणति रचही सुखकार जू,
परमशुद्ध स्वयं सिद्ध भयो अनिवार जू। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं,
परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिपर्यायगुणेभ्यो नमः अध्यं ॥२११॥
छन्त्र चञ्चला (एक हस्व, एक दीर्घ) आप सुक्ख रूप हो सु, और सौख्यकार होत।
ज्यूं घटादि को प्रकाश, कार है सुदीप जोत॥ __ सूरि धर्म को प्रकाश, सिद्ध धर्म रूप जान।
मैं नमूं त्रिकाल एक ही, अभेद पक्ष मान॥
... ॐ हीं सूरिमंगलेभ्यो नमः अयं ॥२१२॥ संस अंस भान वस्तु, भाव को प्रकाशमान। ज्ञान इन्द्रिया अतीन्द्रिया, कहै उभय प्रमाण॥ सूरि धर्म.॥
. ॐ ह्रीं सूरिज्ञानमंगलेभ्यो नमः अयं ॥२१३॥ लोक उत्तमा सु वसु, कर्म को प्रसंग टार। शुद्ध बुद्ध ऋद्धि पाय, लोक वेदना निवार॥ सूरि धर्म.॥
ॐ ह्रीं सूरिलोकोत्तमेभ्यो नमः अध्यं ॥२१४॥ लोकभीत सों अतीत, आदि अन्त एक रूप। लोक में प्रसिद्ध सर्व, भाव को अनूप भूप॥ सूरि धर्म.॥
____ॐ हीं सूरिज्ञानलोकोत्तमेभ्यो नमः अयं ॥२१५ ॥ बीच में न अन्तराय, आप ही सुखाय धाय।। या अबाध धर्म को, प्रकाश में करै सहाय॥ सूरि धर्म.॥
. ॐ ह्रीं सूरिदर्शनलोकोत्तमेभ्यो नमः अयं ॥२१६॥