________________
श्री सिद्धचक्र विधान
[२२७
सुरनर मुनि के पूज्य हो, तुम से श्रेष्ठ न कोय। तीन लोक के स्वामि हो, पूजत शिवसुख होय॥
ॐ ह्रीं अहँ तत्रभवते नमः अयं ॥२१०॥ महा पूज्य महा मान्य हो, स्वयं बुद्ध अविकार। मन-वच-तन से ध्यावते, सुरनर भक्ति विचार ॥
ॐ ह्रीं अहँ अत्रभवते नमः अर्घ्यं ॥२११॥ महाज्ञान केवल कहो, सो दीखे तुम मांहि । महा नामसों पूजिये, संसारी दुःख नाहिं।
ॐ ह्रीं अहँ महते नमः अयं ॥२१२॥ पूज्यपणा नहीं और है, इक तुम ही में जान। महा अहँ तुम गुण प्रभू, पूजत हो कल्याण॥
ॐ ह्रीं अहँ महार्हाय नमः अर्घ्यं ॥२१३॥ अचल शिवालय के विर्षे, अमित काल रहैं राज। चिरंजीवी कहलात हो, ब, शिवसुख काज॥
- ॐ ह्रीं अहँ तत्रायुषे नमः अयं ॥२१४॥ मरण रहित शिवपद लसैं, काल अनन्तानन्त। दीर्घायु तुम नाम है, बन्दत नितप्रति सन्त॥
ॐ ह्रीं अहँ दीर्घायुषे नमः अर्घ्यं ॥२१५ ॥ सकल तत्त्व के अर्थ कहि, निराबाध निरशंस। धर्म मार्ग प्रकटाइयो, नमत मिटै दुःख अंश॥
... ॐ ह्रीं अहँ अर्थवाचे नमः अर्घ्यं ॥२१६॥ मुनिजन नितप्रति ध्यावते, पावें निज कल्याण। सजन जन आराध्य हो, मैं ध्याऊँ धरि ध्यान॥
ॐ ह्रीं अहँ आराध्याय नमः अर्घ्यं ॥२१७॥