________________
२२६]
श्री सिद्धचक्र विधान
तीन लोक के पूज्य हैं, तीन लोक के स्वामि। कर्म शत्रु को छय कियो, तारौं अरहत नाम॥
ॐ ह्रीं अहं अरहते नमः अर्घ्यं ॥२०२॥ सुरनर पूजत चरण जुग, द्रव्य अर्थ युत भाव। महा अर्थ तुम नाम है, पूजत कर्म अभाव।
ह्रीं अहँ महार्थाय नमः अर्घ्यं ॥२०३॥ . शत इन्द्रन करि पूज्य हो, अहमिन्द्रन के ध्येय। द्रव्य भाव करि पूज्य हो, पूजत पूज्य अभेय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ मघर्वार्चिताय नमः अर्घ्यं ॥२०४॥ . छहों द्रव्य गुणपर्य को, जानत भेद अनन्त। महापुरुष त्रिभुवन धनी, पूजत हैं नित सन्त॥ ____ॐ ह्रीं अहँ भूतार्थयज्ञपुरुषाय नमः अयं ॥२०५॥ तुमसों कछु छाना नहीं, तीन लोक का भेद। दर्पण तल कम भास है, नमत कर्ममल छेद ॥ __ॐ ह्रीं अहँ भूतार्थयज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥२०६॥ सकल ज्ञेय के ज्ञानतें, हो सब के सिरमौर। पुरुषोत्तम तुम नमत हैं, तुम लग सब की दौर ॥ ___ॐ ह्रीं अहँ भूतार्थकृतपुरुषाय नमः अर्घ्यं ॥२०७॥ स्वयं बुद्ध शिवमग चरत, स्वयं बुद्ध अविरुद्ध। शिवमगचारी नित जबँ, पावैं आतम शुद्ध॥
ॐ ह्रीं अहँ पूज्याय नमः अर्घ्यं ॥२०८॥ सब देवन के देव हो, तीन लोक के पूज्य। मिथ्या तिमिर निवारते, सूरज और न दूज॥
ॐ ह्रीं अर्ह भट्टारकाय नमः अर्घ्यं ॥२०९ ॥