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श्री सिद्धचक्र विधान
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गर्दभस्वर जैसोकहोभास, तैसोरव अशुभकहोसुभास। यहसुस्वरनामप्रकृतिकहाय, तुमहनोंन{निजशीसलाय॥ ॐ ह्रीं दुस्वरनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१४०॥
अडिल्ल छन्द होत प्रभा मई कान्ति महारमणीक जू,
जग जनमन भावन माने यह ठीक जू। यह आदेय सु प्रकृति नाश निजपद लहो,
- ध्यावत हैं जगनाथ तुम्हें हम अघ दहो॥ ॐ ह्रीं आदेयनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१४१॥ रूखो मुख को वरण लेश नहिं कान्ति को, रूखे के श नखाकृति तन बढ़ भाँति को। अनादेय यह प्रकृति नाश निजपद लहो॥ध्यावत हैं.॥ ___ ॐ ह्रीं अनादेयनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१४२॥ होत गुप्त गुण तो भी जग में विस्तरै, जगजन सुजस उचारत ताकी थुति करें। यह जस प्रकृति विनाश सुभावी यश लहो॥ध्यावत हैं.॥
ॐ ह्रीं यशःप्रकृतिछेदकायरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१४३ ॥ जासु गुणनं को औगुण कर सबही ग्रहैं, करत काज परशंसित पण निन्दित करें। अपयश प्रकृति विनाश सुभावी पद लहो॥ध्यावत हैं.॥
ॐ ह्रीं अपयश:नामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१४४॥ यो थान नेत्रादिक ज्यों के त्यों बनें, रचित चतुर कारीगर करते हैं तनें। यह निर्माण विनाश सुभावी पद लहो॥ ध्यावत हैं.॥
ॐ ह्रीं निर्माणनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१४५ ॥