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श्री सिद्धचक्र विधान
पुद्गल कृत तन छारकै निज आतम में वास। स्वै प्रदेश ग्रह के वि, नितही करत विलास॥ ___ॐ ह्रीं अहँ आत्मनिकेताय नमः अर्घ्यं ॥१३८॥ औरन को नित देत हैं, शिवसुख भोगैं आप। परम इष्ट तुम हो सदा, निजसम करत मिलाप॥
ॐ ह्रीं अर्ह परमेष्ठिने नमः अयं ॥१३९॥ मोक्ष लक्ष्मी नाथ हो, भक्तन प्रति नित देत। महा इष्ट कहलात हो, बन्दूं शिवसुख हेत॥
ॐ ह्रीं अहँ महितात्मने नमः अर्घ्यं ॥१४०॥ रागादिक मल नासिक, श्रेष्ठ भये जगमाहिं। सो उपासना करण को, तुम सम कोई नाहिं॥
ॐ ह्रीं अहँ श्रेष्ठात्मने नमः अर्घ्यं ॥१४१॥ पर में ममत विनाशकैं, स्व आतम थिर धार। पर विकल्प-संकल्प बिन, तिष्ठो सुख आधार॥
ॐ ह्रीं अहँ स्वात्मनिष्ठताय नमः अर्घ्यं ॥१४२ ॥ स्व आतम में मग्न हैं, स्व आतम लवलीन। पर में भ्रमण करै नहीं, सन्त चरण शिर दीन॥
ॐ ह्रीं अहं ब्रह्मनिष्ठाय नम: अर्घ्यं ॥१४३॥ तीन लोक के नाथ हो, इन्द्रिय कर पूज। तुम सम और महानता, नहिं धारत हैं दूज॥
ॐ ह्रीं अहँ महाजेष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥१४४॥ तीन लोक परसिद्ध हो, सिद्ध तुम्हारा नाम। सर्व सिद्धता ईश हो, पूरहु सब के काम॥
ॐ ह्रीं अहँ निरूढात्मने नमः अर्घ्यं ॥१४५ ॥