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श्री सिद्धचक्र विधान
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पर आलिंगन भाव तज, इच्छा क्लेश विडार। निज सन्तोष सुखी सदा, पर सम्बन्ध निवार ।
ॐ ह्रीं अहँ निष्कषायाय नमः अर्घ्यं ॥६५८॥ मोहादिक मल नाशकर, अतिशब करि अमलार। विमल जिनेश्वर मैं नमू, तीनलोक परधान ॥
ॐ ह्रीं अहँ विमलप्रभाय नमः अर्घ्यं ॥६५९॥ स्वैपद में नित रमत हैं, कभी न आरति होय। अतुल वीर्य विधि जीतियों, नमूं जोर कर दोय॥
ॐ ह्रीं अहँ महाबलाय नमः अर्घ्यं ॥६६०॥ द्रव्य भाव मल कर्म हैं, ताको नाश करान। शुद्ध निरञ्जन हो रहै, ज्यौं बादल बिन भान॥
ॐ ह्रीं. अर्ह निर्मलाय नमः अर्घ्यं ॥६६१॥ तुम चित्राम अरूप है, सुरनर साधु अगम्य। निराकार निर्लेप है, धारत भाव असम्य॥
. ॐ ह्रीं अहँ चित्रगुप्ताय नमः अर्घ्यं ॥६६२॥ मग्न भये निज आत्म में, पर पद में नहिं वास। लक्ष अलक्ष विराजते, पूरो मन की आश॥ _ॐ ह्रीं अहँ समाधिगुप्तये नमः अर्घ्यं ॥६६३॥ निज गुण आतम ज्ञान है, पर सहाय नहिं चाह। स्वयं भाव परकाशियो, नमत मिटै भव दाह॥
ॐ ह्रीं अहँ स्वयंभुवे नमः अर्घ्यं ॥६६४॥ मन मोहन सोहन महा, मुनि मन रमण अनन्द। महातेज परताप हैं, पूरण ज्योति अमन्द॥
- ॐ ह्रीं अर्ह कन्दर्पाय नमः अर्घ्यं ॥६६५ ॥