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श्री सिद्धचक्र विधान
आतमीक निज गुण लिये, दीप्ति संरूप अनूप। स्वयं ज्योति परकाशमय, वन्दत हूँ शिवभूप॥
ॐ ह्रीं अर्ह स्वयंप्रभाय नमः अर्घ्यं ॥६५०॥ निज शक्ति निज करण हैं, साधन बाह्य अनेक। मोह सुभट क्षय करन को, आयुध राशि विवेक॥
_____ॐ ह्रीं अर्ह सर्वायुधाय नमः अर्घ्यं ॥६५१॥ जयजय सुर धुनि करत हैं, तथा विजय निधिदेव। तुम पद जे नर नमत हैं, पावै सुख स्वयमेव॥
ॐ ह्रीं अर्ह जयदेवाय नमः अर्घ्यं ॥६५२॥ तुम सम प्रभा न और में, धरो ज्ञान परकाश। नाथ प्रभा जग में भ्रमत, नमत मोहतम नाश॥
ॐ ह्रीं अहँ प्रभादेवाय नमः अर्घ्यं ॥६५३॥ रक्षक हो षटकाय के, दया सिन्धु भगवान। शशिसम जिय आह्लाद करि, पूजनीक धरि ध्यान॥ . ॐ ह्रीं अहँ उङ्ककाय नमः अर्घ्यं ॥६५४॥ समाधान सब के करें, द्वादश सभा मझार। सर्व अर्थ परकाश कर, दिव्य-ध्वनि सुखकार॥
___ॐ ह्रीं अहँ प्रश्नकीर्तये नमः अर्घ्यं ॥६५५॥ काहू विधि बाधा नहीं, कबहूँ नहीं व्यय होय। उन्नति रूप विराजते, जयवन्तो जग सोय॥
ॐ ह्रीं अहँ जयाय नमः अर्घ्यं ॥६५६ ॥ केवल ज्ञान स्वभाव में, लोकत्रय इक भाग। पूरणता को पाइयो, छाँड़ि सकल अनुराग॥
ॐ ह्रीं अहँ पूर्णबुद्धाय नमः अर्घ्यं ॥६५७ ॥