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श्री सिद्धचक्र विधान
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शरणागत निज पास दो, पाप फाँश दुःख नाश। तिनको छेदो मूलसों, देहु मुकति गति वास॥
ॐ ह्रीं अहँ पार्श्वनाथाय नमः अर्घ्यं ॥६४२ ॥ वृद्ध भावतें उच्चपद, लोक शिखर आरूढ़। केवल-लक्षमी बर्धता, भई सु अन्तर गूढ़।
ॐ ह्रीं अर्ह वर्द्धमानाय नमः अर्घ्यं ॥६४३॥ अतुल वीर्य तन धरत हैं, अतुल वीर्य मन बीच। कामिन वश नहीं रञ्च भी, जैसे जल बिच मीच॥ __ॐ ह्रीं अर्ह महावीराय नमः अयं ॥६४४॥ मोह सुभटकू गटकियो, तीन लोक परशंस। श्रेष्ठ पुरुष तुम जगत में, कियो कर्म विध्वंस॥
ॐ ह्रीं अर्ह सुवीराय नमः अर्घ्यं ॥६४५ ॥ मिथ्या-मोह निवार करि, महा सुमति भण्डार। शुभ मारग दरशाइयो, शुभ अरु अशुभ विचार॥
. ॐ ह्रीं अहँ सन्मतये नमः अर्घ्यं ॥६४६ ॥ निज आश्रय निर्विघ्न नित, निज लक्ष्मी भण्डार। चरणाम्बुज नित नमत हम, पुष्पांजलि शुभधार॥
ॐ ह्रीं अहँ पद्माय नमः अर्घ्यं ॥६४७॥ हो देवाधिदेव तुम, नमत देव चउ भेद। धरो अनन्त चतुष्ट पद, परमानन्द अभेद ॥
ॐ ह्रीं अर्ह सूरदेवाय नमः अर्घ्यं ॥६४८॥ निरावर्ण आभास है, ज्यों बिन पटल दिनेश। लोकालोक प्रकाश करि, सुन्दर प्रभा जिनेश। - ॐ ह्रीं अहँ सुप्रभाय नमः अर्घ्यं ॥६४९ ॥