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श्री सिद्धचक्र विधान
विजय लक्ष्मी नाथ हैं, जीते कर्म प्रधान। तिनके पूजै सर्व जग, मैं पूजों धरि ध्यान॥
ॐ ह्रीं अहँ विजयनाथाय नमः अर्घ्यं ॥६६६॥ गणधरादि योगीश जे, विमलाचारी सार।। तिनके स्वामी हो प्रभु, राग-द्वेष मल जार॥
ॐ ह्रीं अहँ विमलेशाय नमः अर्घ्यं ॥६६७॥ . दिव्य अनक्षर ध्वनि खिरै, सर्व अर्थ गुणधार। भविजन मन संशय हरन, शुद्ध बोध आधार॥
ॐ ह्रीं अहं दिव्यवादाय नमः अर्घ्यं ॥६६८॥ . नहीं पार जा वीर्य को, स्वाभाविक निरधार। सो सहजै गुण धरत हो, नमूं लहूँ भवपार॥
ॐ ह्रीं अहँ अनन्तवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥६६९ ॥ पुरुषोत्तम परधान हो, परम निजानन्द धाम। चक्रपती हरिबल नमें, मैं पूनँ निष्काम॥
____ॐ ह्रीं अहँ महापुरुषदेवाय नमः अर्घ्यं ॥६७० ॥ शुभ विधि सब आचरण हैं, सर्व जीव हितकार। श्रेष्ठ बुद्ध अति शुद्ध हैं, नमूं करो भवपार॥
ॐ ह्रीं अहँ सुविधये नमः अर्घ्यं ॥६७१ ॥ हैं प्रमाण करि सिद्ध जे, ते हैं बुद्धि प्रमाण। सो विशुद्धमय रूप हैं, संशय तम को भान॥
ॐ ह्रीं अहँ प्रज्ञापारप्रमिताय नमः अर्घ्यं ॥६७२॥ समय प्रमाण निमित्त तनी, कभी अन्त नहिं होय। अविनाशी थिर पद धरै, मैं प्रणमूं हूँ सोय॥
ॐ ह्रीं अर्ह अव्ययाय नमः अर्घ्यं ॥६७३ ॥