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श्री सिद्धचक्र विधान
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तीन लोक में उच्च हो, तीन लोक परशंस। सो शिवगति पायो प्रभू, जजत कर्म विध्वंस॥
ॐ हीं अहं शिवौद्यमाय नमः अयं ॥२५८॥ जगत्पूज्य शिवनाथ हो, तुम ही द्रव्य विशिष्ट। हित उपदेशक परम गुरु, मुनिजन मानें इष्ट। ____ॐ ह्रीं अहं जगत्पूज्यशिवनाथाय नमः अयं ॥२५९॥ मति, श्रुत, अवधिअवर्णको, नाश कियोस्वयमेव । केवलज्ञान स्वतै लियो, आप स्वयंभू देव॥
ॐ ह्रीं अर्ह स्वयंभूदेवे नमः अर्घ्यं ॥२६०॥ समोशरण अद्भुत महा, और लहैं नहीं कोय। धनपति रचो उछाहसों, मैं पूजूं हूँ सोय॥ ____ॐ ह्रीं अहं कुबेररचितस्थानाय नमः अयं ॥२६१॥ जाको अन्त न हो कभी, ज्ञान लक्षमी नाथ। सोई शिवपुर के धनी, नमूं भाव भरि माथ॥
. ॐ ह्रीं अहँ अनन्तश्रीजुषे नमः अयं ॥२६२॥ गणधरादि नित ध्यावते, पावै शिवपुर वास। परम ध्येय तुम नाम है, पूरै मन की आश॥ ___ॐ ह्रीं अहँ योगीश्वरार्चिताय नमः अध्यं ॥२६३॥ परम ब्रह्म का लाभ हो, तुम पद पायो सार। त्रिभुवन ज्ञाता हो सही, नय निश्चय व्यवहार ॥
ॐ ह्रीं अहं ब्रह्मविदे नमः अयं ॥२६४॥ सर्व तत्त्व के आदि में, ब्रह्म तत्त्व परधान। तिसके ज्ञाता हो प्रभू, मैं बन्दू धरि ध्यान॥ __ॐ ह्रीं अहँ ब्रह्मतत्त्वाय नमः अर्घ्यं ॥२६५ ॥