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श्री सिद्धचक्र विधान
धत्ता
जय अमल अनूपं शुद्ध स्वरूपं,
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निखिल निरूपं धर्म धरा ।
जय विघन नशायक मंगलदायक, तिहूँ जगनायक
परमपरा ॥ ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये नमः द्वात्रिशतगुणसंयुक्तसिद्धेभ्यो पूर्णार्थ्यां
निर्वपामीति स्वाहा ।
ॐ ह्रीं अर्ह असि आउ सा नम: मंत्र का यहाँ १०८ वार जाप देना है ।
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चतुर्थ पूजा चौषठि गुण सहित
चतुःषष्ठि दलोपरि चतुर्थ पूजा उच्चते
छप्पय छन्द
उरध अधो सुरेफ बिन्दु हकार विराजे । अकारादि स्वर लिप्तकर्णिका अन्त सु छाजे ॥ वर्गन पूरित वसुदल अम्बुज तत्व संधिवर । अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अंत ह्रीं बेढ़यो परम सुर, ध्यावत अरिनागको । है केहरिसम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१ ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिनः अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं ! परिपुष्पांजलि क्षिपेत् ।