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श्री सिद्धचक्र विधान
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भरि थाल कञ्चन भेंट धरि संसार फल तृष्णा हरुँ । षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ । फलं ॥८ ॥ शुभ नीर वर काश्मीर चन्दन धवल अक्षत युत अनी । वर पुष्पमाल विशाल चरू सुरमाल दीपक दुति मनी ॥ वर धूप पक्व मधुर सुफल लै अर्घ अठ विधि संचरूँ । षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ ॥ अर्घ ॥ ९ ॥
गीता छन्द
निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमै चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी । वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले ॥ ते कर्मवर्त नशाय युगपत ज्ञान निर्मल रूप हैं, दुःख जन्म टाल अपार गुण सूक्षम सरूप अनूप हैं ॥ - कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य अदूज शिव कमलापति, मुनि ध्येय सेय अभेय चहूँगुण, गेह द्यो हम शुभमती ॥ ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये नमः समत्तणाणदि अट्ठगुणाणं महार्घं निर्वपामीति स्वाहा |
अथ सोलह गुण सहित अर्घ
त्रोटक छन्द
दर्शन आवर्णी प्रकृति हनी, अथिता अवलोक सुभाव बनी। इक साथ समान लखो सबही, नमूं सिद्ध अनन्त दृगण अबही ॥ ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥ १ ॥