________________
१४]
श्री सिद्धचक्र विधान
विधिज्ञानवर्ण विनाशकियो, निजज्ञानस्वभाव विकासलियो। समयान्तर सर्व विशेष जनों, नमूंज्ञान अनन्त सु सिद्ध तनों।
ॐ ह्रीं अनन्तज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥२॥ सुखअमृत पीवत स्वेदनहो, निज भाव विराजन खेद न हो। असमानमहाबल धारत हैं, हम पूजत पाप बिडारत हैं। ___ॐ ह्रीं अतुलवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥३॥ विपरीत सभीत पराश्रितता, अतिरिक्त धरै न, करैं थिरता। पर कीअभिलाषन सेवत है, निज भाविक आनन्द बेवत हैं। ___ॐ ह्रीं अनन्तसुखाय नमः अर्घ्यं ॥४॥ निजआत्म विकाशक बोधलह्यो, भ्रमको परवेशनलेश कह्यो। निजरूप सुधारस मग्न भये, हम सिद्धन शुद्ध प्रतीति नये॥
___ॐ ह्रीं अनन्तसम्यक्त्वाय नमः अर्घ्यं ॥५॥ निज भाव विढार विभावन हो, गमनादिक भेद विकार नहो। निजथाननिरूपम नित्य बसैं, नमूं सिद्ध अनाचल रूप लसें। ____ॐ ह्रीं अचलाय नमः अर्घ्यं ॥६॥
चोपाई गुणपर्यय, परणति के भेद, अतिसूक्षम असमान अक्षेद। ज्ञान गहें, न कहैं जड़ बैन, नमों सिद्ध सूक्षम गुण ऐन ॥७ ___ॐ ह्रीं अनन्तसूक्ष्मत्वाय नमः अर्घ्यं ॥७॥ जन्म-मरण युत धरें न काय, रोगादिक संक्लेश न पाय। नित्य निरंजन निर विकार, अव्याबाध नमों सुखकार॥८
ॐ ह्रीं अव्यबाधाय नमः अर्घ्यं ॥८॥