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श्री सिद्धचक्र विधान
सो अक्षतौध अखण्ड अनुपम पुञ्ज करि सन्मुख धरूँ। षोडशगुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ॥अक्षतं.॥ जग प्रगट काम सुभट विकट कर हट करत जिय घट जगा। तुम शील कटक सुघट निकट सरचाप पटक सुभट भगा। इम पुष्पराशि सुवाम तुम ढिंग कर सुयश बहु उच्चरूँ। षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ ॥ ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धांण श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह सोलहगुणसयुंक्ताय पुष्पं निर्व. स्वाहा ॥२॥ जीवन सतावन नहिं अघावत क्षुधा डाइन-सी बनी। सोतुमहनीतुम ढिंगनआवतनजान यह विधिहम ठनी॥ नैवेद्य के संकेत करि निज क्षुधानाशन विधि वरूँ। षोडशगुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँनैवेद्यं ॥५॥ मैं मोह अन्ध अशक्त अरू यह विषम भववन है महा। ऐसे रुलेको ज्ञानदुति बिन पार निवारण हो कहा॥ सो ज्ञान चक्षु उधार स्वामी दीप ले पाइन परूँ। षोडशगुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ॥दीपं.॥ प्रासुक सुगन्धित द्रव्य सुन्दर दिव्य घ्राण सुहावनो। धरि अग्नि दश दिस वास पूरित ललित धूम्र सुहावनो॥ तुम भक्ति भाव उमंग करत प्रसंग धूप सु विस्तरूँ। षोडशगुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ॥धूपं. ॥७॥ चित हरन अचित सुरंग रसपूरित विविध फल सोहने। रसना लुभावन कल्पतरु के सुर असुर मन मोहने॥