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श्री सिद्धचक्र विधान
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दोहा सूक्ष्मादि गुण सहित हैं, कर्म रहित नीरोग। सिद्धचक्र सो थाप हूँ, मिटैं उपद्रव योग॥२॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः षोडशगुणसंयुक्तसिद्ध सिद्धपरमेष्ठिः अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनः। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं !
अथाष्टकं - गीता छन्द हिमशैल धवल महान कठिन पाषाण तुम जस रासते। शरमाय अरु सकुचाय द्रव्य है वही गंगा तासतें॥ सम्बन्ध योग चितार चित्त भेंटार्थ झारी में भीं। षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ॥१॥ ॐ ह्रीं णमो अन्यावाहं सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह षोडशगुणसंयुक्ताय जलं निर्व. स्वाहा ॥१॥
काश्मीर चन्दन आदि अन्तर बाह्य बहुविधि तप हरै। यहकार्यकारणलखिनिमितममभाव बहुउद्यधकरै। मैं हूँ दुःखी भवताप से घसि मलय चरनन ढिंग धरूँ। षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धांण श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदमसवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह षोडशगुणसयुक्ताय चंदनं निर्व. स्वाहा ॥२॥ सौरभि चमक जिस सह न सकि अम्बुज वसै सरताल में। शशिगगन बसि नित होत कृशअहिनिश भ्रमै इसख्याल में॥