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श्री सिद्धचक्र विधान
अष्टमी पूजा १०२४ गुण सहित
छप्पय छन्द ऊरध अधो सुरेफ बिन्दु हङ्कार बिराजे। अकारादि स्वर लिप्तकर्णिका अन्त सु छाजे॥ वर्गनि पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व सन्धिधर।
अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अन्त ह्रीं वेढ्यो परम, सुर ध्यावत अरिनागको। है केहरिसम पूजन निमित्त, सिद्धचक्र मंगल करो॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिनः १०२४ गुणसहित बिराजमान अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं।
दोहा -- सूक्ष्मादि गुण सहित हैं, कर्म रहित नीरोग। सिद्धचक्र सो थापहूँ, मिटें उपद्रव योग॥
इति यन्त्र स्थापनम्।
अथाष्टकं - गीता छन्द निज आत्मरूप सु तीर्थ मग नित, सरस आनन्द धार हो। नाशै त्रिविध मल सकल दुःखमय, भव जलधि के पार हो। यातै उचित ही है जु तुम पद, नीरसों पूजा करूँ । इक सहस अरु चौबीस गुण गण, भावयुत मन में धरूँ॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय जन्मजरामृत्युविनाशाय जलं ॥१॥