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श्री सिद्धचक्र विधान
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शीतल सुरूप सुगन्ध चन्दन, एक भव तप नास ही। सो भव्य मधुकर प्रिय सु यह, नहिं और ठौर सुबास ही॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, मलयसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय संसारतापविनाशनाय चंदनं. ॥२॥ अक्षय अबाधित आदि अन्त, समान स्वच्छ सुभाव हो। ज्यों तुष बिना तन्दुल दिपै त्यू, निखिल अमल अभाव हो॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, अक्षतं पूजा करूँ॥इक.॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं. ॥३॥ गुण पुष्पमाल विशाल तुम, भवि कण्ठ पहिरै भावंसों। जिनके मधुप मन रसिक लुब्धित, रमत नित प्रति चावसों॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, पुष्पसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं. ॥४॥ शुद्धात्म सरस सुपाक मधुर, समान और न रस कहीं। ताके हो आस्वादी तुम सम, और सन्तुष्टि त नहीं॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, चरुनसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं. ॥५॥ स्वैपर प्रकाश स्वभावधर, ज्यूं निज स्वरूप सम्भारते। त्यूं ही त्रिकाल अनन्त द्रव्य पर्याय, प्रगट निहारते ॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, दीपसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं ॥६॥ वर ध्यान अगनि जराय वसुविधि, ऊर्द्धगमन स्वभावतें।' राजै अचल शिव थान नित, तिन धर्मद्रव्य अभावतें॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, धूपसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय अष्टकर्मदहनाय धूपं. ॥७॥