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श्री सिद्धचक्र विधान
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वर्ण तवर्ग मनोग, यथायोग्य कर अर्घ धरि । मिलि है सब शुभ योग, पूजन करि पश्चिम दिशा ॥ ११ ॥
ॐ ह्रीं अहं त थ द ध न अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये पश्चिमदिशि अर्ध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
वर्ण पवर्ग सुभाग, करूँ आरती अर्घ ले । सब विधि आरति त्याग वायव दिशि पूजा करों ॥ १२ ॥
ॐ ह्रीं अहं प फ ब भ म अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये वायव्यदिशि अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
वर्ण यवर्गी सार, दर्व, अर्घ वसु द्रव्य करि ।
भाव अर्घ उर धार, उत्तर दिशि पूजा करों ॥ १३ ॥ ॐ ह्रीं अहं य र ल व अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये उत्तरदिशि
अर्ध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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शेष वर्ण चउ अन्त, उत्तम अर्घ बनाइकें ।
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नशे कर्म वसु भन्त, पूजों हो ईशान दिशि ॥ १४ ॥
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये ईशानदिशि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
छप्पय छन्द.
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ऊरध अधो सुरेफ बिन्दु हकार विराजे । अकारादि स्वर लिप्त कर्णिका अन्त सु छाजे ॥ वर्गन पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधि धर । अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर ॥