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श्री सिद्धचक्र विधान
आनन्द धर्म प्रभावना मन घटा धूम्र सु छावहीं। गन्धित दरव शुभ घ्राण प्रिय अति अग्नि संगजरावहीं।यह.॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ शुभ चिन्तवन फल विविध रस युत भक्ति तरु उपजावहीं। रसना लुभावन कल्पतरु के सुर असुर मन भावहीं॥यह.॥
ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुल्लघुअव्वावाहं मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ समकित विमल वसु अंग युत करि अर्घ अन्तर भावहीं। वसु दरब अर्घ बनाय उत्तम देहु हर्ष उपावहीं॥ यह.॥ ____ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वामीति स्वाहा ॥९॥
. गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमें चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी। वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले॥ ते कर्म प्रकृति नशाय युगपत ज्ञान निर्मल रूप हैं, दुःख जन्म टाल अपार गुण सूक्षम सरूप अनूप हैं।