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श्री सिद्धचक्र विधान
निरखेद अछेद अभेदा, सुख रूप वीर्य निर्वेदा। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया॥
ॐ हीं पाठकवीर्याय नमः अध्यं ॥३२९॥ निज भोग कलेश न लेशा, यह वीर्य अनन्त प्रदेशा। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यगुणाय नमः अध्यं ॥३३०॥ .. परनाम सुथिर निज माहीं, उपजै न कलेश कदाहीं। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया॥
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यपर्यायाय नमः अयं ॥३३१॥ .. द्रव्य भाव लहो तुम जैसो, पावै जगजन नहिं ऐसो। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यद्रव्याय नमः अयं ॥३३२॥ . निज ज्ञान सुधारस पीवत, आनन्द सुभाव सु जीवत। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यगुणपर्यायाय नमः अर्घ्यं ॥३३३॥ अविशेष अनन्त सुभावा, तुम दर्शन माहिं लखावा। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया॥
ॐ ह्रीं पाठकदर्शनपर्यायाय नमः अर्घ्यं ॥३३४॥ एक बार लखे सबही को, तद्रूप निजातम ही को। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
ॐ हीं पाठकदर्शनपर्यायस्वरूपाय नमः अयं ॥३३५ ॥ सपरस आदिक गुण नाहीं, चिद्रूप निजातम माहीं। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
ॐ ह्रीं पाठकज्ञानद्रव्याय नमः अयं ॥३३६ ॥