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श्री सिद्धचक्र विधान
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षट् द्रव्य रचित जग सारा, तुम उत्तम रूप निहारा । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यलोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥३२१ ॥ निज ज्ञान शुद्धता पाई, जिस करि यह है प्रभुताई । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२२ ॥
जग जीव अपूरण ज्ञानी, तुम ही लोकोत्तम प्रानी । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकज्ञानलोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥३२३ ॥
तुम पद निरभेद निहारा, तुम दर्शन भेद उधारा । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२४ ॥
हम सोवत हैं नित मोही, निरमोही लखें तुमको ही । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकदर्शनलोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२५ ॥ द्रगवन्त महा सुखकारा, तुम ज्ञान महा अविकारा । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकदर्शनस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२६ ॥ निरशंस अनन्त अबाधा, निज बोधन भाव अराधा । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२७॥ सम्यक्त महा सुखकारी, निज गुण स्वरूप अधिकारी । तुम गुण अनन्तं श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वगुणस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२८ ॥