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श्री सिद्धचक्र विधान
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शरणागत दीनदयाला, हम पूजत भाव विशाला। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
ॐ ह्री पाठकशरणाय नमः अर्घ्यं ॥३३७॥ जिन शरण गही शिव पायो, इम शरण महा गुण पायो। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
ॐ ह्रीं पाठकगुणशरणाय नमः अयं ॥३३८॥ अनुभव निज बोध करावै, यह ज्ञान शरण कहलावै। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
ॐ ह्रीं पाठकज्ञानगुणशरणाय नमः अयं ॥३३९॥ द्रग मात्र तथा सरधाना, निश्चय शिववास कराना। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
.. ॐ ह्रीं पाठकदर्शनशरणाय नमः अर्घ्यं ॥३४०॥ निरभेद स्वरूप अनूपा, है शर्ण तुही शिव भूपा। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। - ॐ ह्रीं पाठकदर्शनस्वरूपशरणाय नमः अयं ॥३४१॥ निज आत्म-स्वरूप लखाया, इह कारण शिवपद पाया। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वशरणाय नमः अयं ॥३४२॥ आतम-स्वरूप सरधाना, तुम शरण गही भगवाना। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया॥
ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३४३॥ निज आतम साधन माहीं, पुरुषारथ छूट नाहीं। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया।
ॐ ह्रीं पाठकवीर्यशरणाय नमः अर्घ्यं ॥३४४ ॥