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श्री सिद्धचक्र विधान
आतम शक्ति प्रगटावै, तब निज स्वरूप जिय पावै । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकवीर्यस्वरूपशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ३४५ ॥ परमातम वीर्य महा है, पर निमित न लेश तहाँ है। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकवीर्यपरमात्मशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ३४६ ॥ श्रुत द्वादशांग जिनवानी, निश्चय शिववास करानी । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकद्वादशांगशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ३४७ ॥ दश पूर्व महा जिनवानी, निश्चय अघहर सुखदांनी । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकदशपूर्वाङ्गाय नमः - अर्घ्यं ॥ ३४८ ॥ दश चार पूर्व जिनवानी, निश्चय शिववास करानी । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकचतुदर्शपूङ्गाय नमः अर्घ्यं ॥ ३४९ ॥
निज आत्म चर्ण प्रगटावै, आचार अंग कहलावै । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकाचाराङ्गाय नमः अर्घ्यं ॥ ३५० ॥
रेखता छन्द
विविध शङ्कादि तम टारी, निरन्तर ज्ञान आचारी । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकज्ञानाचाराय नमः अर्घ्यं ॥ ३५१ ॥