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श्री सिद्धचक्र विधान
परम ब्रह्म पद पाइयो, पूरण ज्ञान प्रकाश। तीनलोक के जीव सब, पूजें चरण निवास॥
ॐ ह्रीं अहं महाब्रह्मपतये नमः अयं ॥५८६॥ द्रव्य पर्यार्थिक नय दोऊ, साधत वस्तु स्वरूप। गुण अनन्त अवरोध कर, कहत सरूप अनूप॥
ॐ ह्रीं अहं सुनयतत्वज्ञाय नमः अध्यं ।।५८७ ॥ सूर्य समान प्रकाश कर, कर्म दुष्ट हनि सूर। शरण गही तुम चरण की, करो ज्ञान दुति पूर॥
ॐ ह्रीं अहँ सूरये नमः अर्घ्यं ।५८८॥ तुम सम और न जगत में, सत्यारथ तत्त्वज्ञ। सम्यग्ज्ञान प्रभावतें, हो अदोष सर्वज्ञ॥
ॐ ह्रीं अहं तत्त्वज्ञाय नमः अयं ॥५८९॥ तीनलोक हितकार हो, शरणागत प्रतिपाल। भव्यनि मन आनन्द करि, बन्दूं दीनदयाल॥
____ ॐ हीं अहं महामित्राय नमः अयं ॥५९०॥ । समता सुख में मगन हैं, राग-द्वेष संक्लेश। ताको नाशि सुखी भये, युगयुग जयो जिनेश॥
ॐ ह्रीं अहँ साम्यभावधारकजिनाय नमः अयं ॥५९१ ॥ निरावरण निज ज्ञान में, संशय विभ्रम नाहिं। सम्यग्ज्ञान प्रकाशते, वस्तु प्रमाण दिखाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह प्रक्षीणबंधाय नमः अयं ॥५९२ ॥ एक रूप परकाश कर, दुविधि भाव विनशाय। पर निमित्त लवलेश नहीं, बन्दू तिनके पाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह निर्द्वन्द्वाय नमः अय॑ ।।५९३॥