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श्री सिद्धचक्र विधान
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मुनि विशेष स्नातक कहै, परमातम परमेश। तुम ध्यावत निर्वाणपद, पावै भविक हमेश॥
ॐ ह्रीं अहँ स्नातकपरमर्षये नमः अयं ॥५९४॥ पञ्च प्रकार शरीर बिन, दीप्त रूप निजरूप। सुर मुनि मन रमणीय हैं, पूजत हूँ शिवभूप॥
ॐ ह्रीं अहं अनङ्गाय नमः अयं ॥५९५ ॥ द्वय प्रकार बन्धन रहित, बन्दूं मोक्ष सरूप। भविजन बन्ध विनाश कर, देहो मोक्ष अनूप।
भविजन बन्ध निर्वाणाय नम:आप महा भ
सुगुण रत्न की राश के, आप महा भण्डार। अगम अथाह विराजते, बन्दूं भाव विचार॥
.. ॐ ह्रीं अहं सागराय नमः अयं ॥५९७ ॥ मुनिजन ध्यावें भावयुत, महा मोक्षपद साध। सिद्ध भये मैं नमत हूँ, चहू संघ आराध॥
. ॐ ह्रीं अहँ महासाधवे नमः अध्यं ॥५९८॥ ज्ञान ज्योति प्रतिभास में, रागादिक मल नाहिं। विशद अनूपम लसत हो, दीप्त ज्योति शिवराहि॥ ______ ॐ ह्रीं अहँ विमलाभाय नमः अयं ॥५९९॥ द्रव्यभाव मल नाश कर, शुद्ध निरञ्जन देव । निज आतम में रमत हो, आश्रय बिन स्वयमेव॥
ॐ ह्रीं अहँ शुद्धात्मने नमः अयं ॥६००॥ शुद्ध अनन्त चतुष्ट गुण, धरत तथा शिवनाथ। श्रीधर नाम कहात हो, हरिहर नावत माथ।
- ॐ ह्रीं अहं श्रीधराय नमः अयं ॥६०१॥