________________
२७६]
श्री सिद्धचक्र विधान
मरणदिक भय ये सदा, रक्षित हैं भगवान। स्वयं प्रकाश बिलास में, राजत सुख की खान॥ ___ ॐ ह्रीं अहं मरणभयनिवारणाय नमः अयं ॥६०२॥ राग-द्वेष नहीं भाव में, शुद्ध निरञ्जन आप। ज्यों के त्यों तुम थिर रहो, तनक न व्यापै पाप॥
ह्रीं अहँ अमलाभावाय नमः अयं ॥६०३ ॥ भवसागर से पार हो, पहुँचे शिवपद तीर। भाव सहित तिन नमत हूँ, लहूँ न फुनि भवपीर॥
ॐ ह्रीं अहँ उद्धराय नमः अयं ॥६०४॥ अग्निदेव या अग्नि दिश, ताके देव विशेष। ध्यावत हैं तुम चरणयुग, इन्द्रादिक सुर शेष॥
ॐ ह्रीं अर्ह अग्निदेवाय नमः अर्घ्यं ॥६०५॥ विषय कषाय न रज है, निरावरण निरमोह। इन्द्री मन को दमन कर, बन्दूं सुन्दर सोह॥ . ॐ ह्रीं अहँ संयमाय नमः अर्घ्यं ॥६०६॥ मोक्षरूप कल्याण कर, सुख-सागर के पार। महादेव स्वैशक्ति धर, विद्या तिय भरतार ॥
ह्रीं अहँ शिवाय नमः अर्घ्यं ॥६०७॥ पुष्प भेंट धर जजत सुर, निज कर अंजुलि जोड़। कमलापति कर कमल में, धरै लक्ष्मी होड़।
ॐ ह्रीं अहँ पुष्पांजलये नमः अर्घ्यं ॥६०८॥ पूरण ज्ञानानन्द मय, अजर अमर अमलान। अविनासी ध्रुव अखिलपद, अविकारी सब मान॥
ॐ ह्रीं अहँ शिवगुणाय नमः अर्घ्यं ॥६०९ ॥