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श्री सिद्धचक्र विधान
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गुण पर्याय अनन्त युत, वस्तु स्वयं परदेश। स्वयं काल स्व क्षेत्र हो, स्वयं सुभाव विशेष॥
ॐ ह्रीं अहँ भावाय नमः अर्घ्यं ।।७५४॥ सूक्षम गुप्त स्वगुणं धरै, महा शुद्धता धार। चार ज्ञानधर नहिं लखै, मैं पूजूं सुखकार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ गर्भकल्याणकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७५५ ॥ शिव तिय संग सदा रमें, काल अनन्त न और। अविनाशी अविकार हो, महादेव शिरमौर ॥
ह्रीं अहँ सदाशिवाय नमः अर्घ्यं ॥५६॥ . जगत कार्य तुमसों सरै, सब तुमरे आधीन। सब के तुम सरदार हो, आप धनी जग दीन॥
ॐ ह्रीं अहँ जगत्कर्त्रे नम: अर्घ्यं ॥७५७ ॥ महा घोर अँधियार है, मिथ्या मोह कहाय। जग में शिव मगर लुप्त था, ताको तुम दरशाय॥ - ह्रीं अहँ अन्धकारन्तकाय नमः अर्घ्यं ।।७५८॥ सन्तति पक्ष जुदी नहीं, नहीं आदि नहीं अन्त। सदा काल बिन काल तुम, राजत हो जयवन्त॥ ___ॐ ह्रीं अहँ अनादिनिधनाय नमः अर्घ्यं ॥७५९॥ तीन लोक आराध्य हो, महा यज्ञ को ठाम। तुम को पूजत पाइये, महा मोक्ष सुख धाम॥
ॐ ह्रीं अहँ हराय नमः अर्घ्यं ॥७६०॥ महा सुभट गुणरास हो, सेवत हैं तिहुँ लोक। शरणागत प्रतिपाल कर, चरणाम्बुज दूं धोक॥
ॐ ह्रीं अहँ महासेनाय नमः अर्घ्य ७६१ ॥