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श्री सिद्धचक्र विधान
गणधरादि सेवें चरण, महा गणपती नाम। पाप करो भवसिन्धुतें, मंगल कर सुख धाम॥ ____ॐ ह्रीं अहँ महागणपतिजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७६२॥ चार संघ के नाथ हो, तुम आज्ञा शिर धार। धर्म मार्ग प्रवर्त्त कर, बन्दूं पाप निवार॥
ॐ ह्रीं अहँ गणनाथाय नमः अयं ॥७६३॥ . मोह सर्प के दमन को, गरुड़ समान कंहाय। सब के आदरकार हो, तुम गणपति सुखदाय॥
ॐ ह्रीं अहँ महाविनायकाय नमः अर्घ्य ७६४॥ जे मोही अल्पज्ञ हैं, तिनसों हो प्रतिकूल। धर्माधर्म विरोध कर, धरूँ शीश पग धूल।
ॐ ह्रीं अहँ विरोधविनाशकजिनाय नमः अयं ॥७६५ ॥ जितने दुःख संसार में, तिनको वार न पार। इक तुमही जानौ सही, ताहि तजो दुःख भार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ विपद्विनाशकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७६६ ॥ सब विद्या के बीज हो, तुम वाणी परकाश। सकल अविद्या मूलतें, इक छिन में हो नाश॥
ॐ ह्रीं अहँ द्वादशात्मने नमः अर्घ्यं ॥७६७ ॥ पर निमित्त से जीव को, रागादिक परिणाम। तिनको त्याग सुभाव में, राजत है सुखधाम।
ॐ ह्रीं अर्ह रहिताय नमः अर्घ्य ७६८ ॥ अन्तर बाहिर प्रबल रिपु, जीत सके नहीं कोय। निर्भय अचल सुथिर रहैं, कोटि शिवालय सोय॥
ॐ ह्रीं अहँ दुर्जयाय नमः अर्घ्यं ॥७६९ ॥