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. श्री सिद्धचक्र विधान
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तुम सम और विभव नहीं, धरो चतुष्ट अनंत । क्यों न करो उद्धार अब, दास कहावै संत॥
ॐ ह्रीं अर्ह अद्वितीयविभवधारकाय नमः अयं ॥४०२॥ जामें विघन न हो कभी, ऐसी श्रेष्ठ विभूति। पाई निज पुरुषार्थ करि, पूजत शुभ करतूत।
ॐ ह्रीं अहं प्रभवे नमः अयं ॥४०३॥ तुम सम शक्ति न और की, शिवलक्ष्मी को पाय। भोगैं सुख स्वाधीन कर, बन्दूं तिन के पाँय॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अद्वितीयशक्तिधारकाय नमः अर्घ्यं ॥४०४॥
तुम से अधिक न और में, पुरुषारथ कहूँ पाय। ' हो अधीश सब जगत के, बन्दूं तिन के पाय॥
.. ॐ ह्रीं अहँ अधीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥४०५॥ . अग्रेश्वर चउ संघ के, शिवनायक शिरमौर। पूजत हूँ नित भावसों, शीश दोऊ कर जोर॥
. ॐ ह्रीं अर्ह अधीशाय नमः अध्यं ॥४०६॥ सहज सुभाव प्रयत्न बिन, तीन लोक आधीश। शुद्ध सुभाव विराजते, बन्दूं पद धर शीश॥ ___ ॐ ह्रीं अहं सर्वाधीशाय नमः अ ४०७॥ छायक सुमति सुहावनी, बीजभूत तिस जान। तुमसैं शिवमारग चलै, मैं बन्दू धरि ध्यान॥
ॐ ह्रीं अर्ह अधीशित्रे नमः अध्यं ॥४०८॥ स्वयं बुद्ध शिवनाथ हो, धर्म तीर्थ करतार। तुम सम सुमति न को धरै, मैं बन्दूं निरधार॥ ____ ॐ ह्रीं अहं धर्मतीर्थकत्रे नमः अर्घ्यं ॥४०९॥