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श्री सिद्धचक्र विधान
पूरण शक्ति सुभाव धर, पूरण ब्रह्म प्रकाश। पूरण पद पायो प्रभू, पूजत पाप विनाश॥
ॐ ह्रीं अहं पूर्णपदप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥४१०॥ तुम से अधिक न और हैं, त्रिभुवन ईश कहाय। तीन लोक अत्यन्त सुख, पायो बन्दूं ताय॥ __ॐ ह्रीं अहं त्रिलोकाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥४११॥ तीन लोक पूजत चरण, ईश्वर तुम को जान। मैं पूजों हों भावसों, सब से बड़े महान॥
ॐ ह्रीं अर्ह ईश्वराय नमः अयं ॥४१२॥ . सूरज सम परकाश कर, मिथ्या तम परिहार।. भविजन कमल प्रबोध का, पायो निज हितकार॥
ॐ ह्रीं अहँ ईशाय नमः अयं ४१३ ॥ क्रीडा करि शिवमार्ग में, पाय परम पद आप। आज्ञा भंग न हो कभी, बन्दत नाशें पाप॥ . ॐ ह्रीं अर्ह इन्द्राय नमः अर्घ्यं ॥४१४॥ उत्तम हो तिहुँलोक में, सब के हो शिरताज। शरणागत प्रतिपाल हो, पूर्जे आतम काज॥ ___ॐ ह्रीं अहं त्रिलोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥४१५॥ अधिक भूति के हो धनी, सर्व सुखी निरधार। सुरनर तुम पद को लहैं, पूजत हूँ सुखकार॥
ॐ ह्रीं अर्ह अधिभुवे नमः अयं ॥४१६ ॥ तीन लोक कल्याण कर, धर्म मार्ग चितलाय। सब देवन के देव हो, महादेव सुखदाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह महेश्वराय नमः अर्घ्यं ॥४१७॥