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श्री सिद्धचक्र विधान
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चेतन की परिणति रहै सदा चितमाहीं, - ज्यों सिन्धु लहरही सिन्धु और कछु नाहीं। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, - मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥
ॐ ह्रीं साधुचेतनस्वरूपाय नमः अयं ॥४६४॥ चेतन विलास सुखरास नित्य परकाशी,
सो साधु दिगम्बर साधु भये अविनाशी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, - मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥
ॐ ह्रीं साधुचेतनाय नमः अर्घ्यं ॥४६५ ॥ तुम असाधारण अरु परमातम परकाशी,
। नहिं अन्य जीव यह लहै गहै भववासी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै,
मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥
ॐ ह्रीं साधुपरमात्मप्रकाशाय नमः अध्यं ॥४६६ ॥ तुम मोह तिमिर बिन स्वयं सूर्य परकाशी, ... गुण द्रव्यपर्य सब भिन्न-भिन्न प्रतिभासी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै,
मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥
ॐ ह्रीं साधुज्योतिः स्वरूपाय नमः अयं ॥४६७॥ ज्यों घटपदादि दीपक की ज्योति दिखावै,
त्यों ज्ञान ज्योति सब भिन्न-भिन्न दरशावै।