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श्री सिद्धचक्र विधान
सम्वर के गुणते मुनि पावत, जो मुनिशुद्ध सुभावसुध्यावत। सूरि महानिज ज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रणमूं मैं मनधर ॥
. ॐ ह्रीं सूरिसम्वरगुणाय नमः अयं ॥२८४॥ सम्वर धर्मतनी शिव पावहि, सम्वर धरम तहाँ दरशावहि। सूरि महा निजज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रणमूं मैं मनधर ॥ ॐ ह्रीं सूरिसम्वरधर्माय नमः अयं ॥२८५॥ .
दोहा एक देश वा सर्व विधि, दोनों मुक्ति स्वरूप,
नमूं निरजरा तत्वसों, पायो सिद्ध अनूप।
ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरातत्वाय नमः अर्घ्यं ॥२८६॥ .. शुद्ध सुभाव जहाँ तहाँ, कहो कर्म को नाश,
एम निरजरा तत्व का, रूप कियो परकाश।
ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरातत्वस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥२८७॥ कोटि जन्म के विघन सब, सूखे तृण सम जान,
दहे निर्जरा अग्निसों, इह गुण है परधान। ___ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरागुणस्वरूपाय नमः अयं ॥२८८ ॥ निज बल कर्म खपाइये, कहो निर्जरा धर्म,
धर्मी सोई आत्मा, एक हि रूप सुपर्म।
ॐ ह्रीं सूरिनिर्जराधर्मस्वरूपाय नमः अध्यं ॥२८९ ॥ समय-समय गुण श्रेणिका, खिरै कर्मबल ध्यान, . ये संबंध निवार करि, करै मुक्ति सुखपान। ___ ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरानुबन्धाय नमः अर्घ्यं ॥२९० ॥