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श्री सिद्धचक्र विधान
अतुल शक्ति थिरभाव की, सो प्रगटी तुम माहिं, यही निर्जरा रूप है नमूं भक्ति कर ताहि । ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरास्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ २९९ ॥ सर्व कर्म के नाश बिन, लहै न शिव-सुखरास, निश्चय तुमही निर्जरा, कियो प्रतीत प्रकाश । ॐ ह्रीं सूरिनिर्जराप्रतीताय नमः अर्घ्यं ॥ २९२ ॥ सकल कर्ममल नाशतें, शुद्ध निरञ्जन रूप,
ज्यों कंचन बिन कालिमा, राजै मोक्ष अनूप । ॐ ह्रीं सूरिमोक्षाय नमः अर्घ्यं ॥ २९३ ॥ द्रव्य भाव दोनों सुविधि, करै जगत् में वास, द्वै विध बंध उखार के, भये मुक्त सुखरास । ॐ ह्रीं सूरिबन्धमोक्षाय नमः अर्घ्यं ॥ २९४ ॥ पर विकलप सुख-दुःख नहीं, अनुभव निज आनंद, जन्म-मरण विधिनाशकर, राजत शिवसुख कंद | ॐ ह्रीं सूरिमोक्षस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ २९५ ॥ जहाँ न दुःखको लेश है, उदय कर्म अनुसार,
सो शिवपद पायो महा, नमूं भक्ति उर धार । ॐ ह्रीं सूरिमोक्षगुणाय नमः अर्घ्यं ॥ २९६ ॥
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जो शिव सुगुण प्रसिद्ध है, तिनसों नित प्रबंध,
जे जगवास विलास दुःख, तिनकूं नमूं अबंध । ॐ ह्रीं सूरिमोक्षानुबन्धाय नमः अर्घ्यं ॥ २९७ ॥ जैसी निज तन आकृति, तज कीनो शिववास, ते तैसें नित अचल हैं, ज्ञानानन्द प्रकाश । ॐ ह्रीं सूरिमोक्षानुप्रकाशाय नमः अर्घ्यं ॥ २९८ ॥