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श्री सिद्धचक्र विधान
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जे जग में षद्रव्य कहै, तिनमें इक जीव सु ज्ञान स्वरूप। औरसभी बिनज्ञानकहै, तुमराजतहोनितज्ञातअनूप ॥सूरि.
ॐ ह्रीं सूरिजीवतत्वाय नमः अध्यं ॥२७७॥ ज्ञान सुभाव धरो नित ही, नहिं छाड़त हो कबहूँ निज वान। येही विशेष भयोसबसों नहिं,औरन में गुणयेपरधान॥सूरि.
ॐ ह्रीं सूरिजीवतत्वगुणाय नमः अयं ॥२७८ ॥ हो कर्तादि अनेक सुभाव निजातम में पर में अनिवार। सोपरकोनलगाररहो, निजही निजकर्मरहोसुखकार ॥सूरि.
. ॐ ह्रीं सूरिनिजस्वभावधारकाय नमः अर्घ्यं ॥२७९ ॥ द्रव्य तथापि विभावदोऊ विधि, कर्म प्रवाह बहै बिन आदि। तेसबएकभयेथिररूप, निजातकशुद्धसुभावप्रसादि॥सूरि.
ॐ ह्रीं सूरिआस्रवविनाशाय नमः अध्यं ॥२८॥
- मोदक छन्द बन्धदऊविधिके दुःख कारण, नाशकियोभवपारउतारण। सूरि महा निज ज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रणमूं मैं मनधर ॥
ॐ ह्रीं सूरिबन्धतत्वविनाशाय नमः अयं ॥२८१ ॥ सम्वर तत्व महा सुख देत हि, आस्त्रवरोकन को यह हेत हि। सूरिमहा निज ज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रणमूं मैं मनधर ॥
ॐ ह्रीं सूरिसम्वरणगुणाय नमः अयं ॥२८२॥ ज्यूँमणिदीपअडोलअनूपही, सम्वरतत्व निराकुलरूपही। सूरि महा निज ज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रणमूं मैं मनधर ॥
ॐ ह्रीं सूरिसम्वरतत्वस्वरूपाय नमः अयं ॥२८३॥