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श्री सिद्धचक्र विधान
ज्ञान दर्श आवर्ण बिन, दिपो अनन्ताऽनन्त। सकल ज्ञेय प्रतिभास हैं, तुम्हें नमैं नित सन्त॥
___ॐ ह्रीं अहँ अनन्तधिये नमः अयं ॥१५४॥ इक-इक गुण प्रति छेद को, पार न पायो जाय। सो गुण रास अनन्त हैं, बन्दूं तिनके पाय॥
ॐ ह्रीं अहँ अनन्तात्मने नमः अर्घ्यं ॥१५५॥ अहमिन्द्रन की शक्ति जो, करो अनन्ती रास। सो तुम शक्ति अनंत गुण, करै अनंत प्रकाश॥
___ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तशक्तये नमः अर्घ्यं ॥१५६॥ छायक दर्शन जोति में, निरावरण परकास। सो अनंत द्रग तुम धरौ, नमैं चरण नित दास॥
ॐ ह्रीं अर्ह अनन्तदृगे नमः अर्घ्यं ॥१५७॥ जाकी शक्ति अपार है, हेतु अहेतु प्रसिद्ध। गणधरादि जानत नहीं, मैं बन्दूं नित सिद्ध॥
. ॐ ह्रीं अहँ अनन्तधीशक्तये नमः अर्घ्यं ॥१५८॥ चेतन शक्ति अनन्त है, निरावरण जो होय। सो तुम पायो सहज ही, कर्म पुञ्ज को खोय॥
ॐ ह्रीं अहँ अनन्तचिदे नमः अर्घ्यं ॥१५९॥ जो सुख है निज आश्रये, सो सुख पर में नाहिं। निजानन्द रस लीन हैं, मैं बन्दूं हूँ ताहि॥
ॐ ह्रीं अहँ अनन्तमुदे नमः अर्घ्यं ॥१६०॥ जाकै कर्म लिपैं न फिर, दिपैं सदा निरधार। सदा प्रकाश जु सहित हैं, बन्दूं योग सम्हार॥
ॐ ह्रीं अहँ सदाप्रकाशाय नमः अर्घ्यं ॥१६१ ॥