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श्री सिद्धचक्र विधान
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निजानन्द के माहि हैं, सर्व अर्थ परसिद्ध । सो तुम पायो सहज ही, नमत मिलें नवनिद्ध। ___ॐ ह्रीं अहं सर्वार्थसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१६२॥ अति सूक्ष्म जे अर्थ हैं, काय अकाय कहाय। साक्षात् सब को लखो, बन्दूं तिनके पाँय॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ साक्षात्कारिणे नमः अर्घ्यं ॥१६३ ॥ सकल गुणनमय द्रव्य हो, शुद्ध सुभाव प्रकाश। तुम समान नहीं दूसरो, बन्दत पूरें आस॥ __ॐ ह्रीं अहँ समग्रर्द्धये नमः अर्घ्यं ॥१६४॥ सर्व कर्म को छीन करि, जरी जेवरी सार। सो तुम धूलि उडाइयो, बन्दूं भक्ति विचार ॥
. ॐ ह्रीं अहँ कर्मक्षीणाय नमः अर्घ्यं ॥१६५ ॥ चहुँ गति जगत कहावत हैं, ताको करि विध्वंश। अमर अचल शिवपुर बसें, भर्म न राखो अंश।
ॐ ह्रीं अहँ जगद्विध्वंसिने नमः अर्घ्यं ॥१६६॥ इन्द्री मन व्यापार में, जाको नहिं अधिकार। सो अलक्ष आतम प्रभू, होउ सुमति दातार॥
ॐ ह्रीं अहँ अलक्षात्मने नमः अर्घ्यं ॥१६७॥ नहीं चलाचल अचल हैं, नहीं भ्रमण थिर धार। सो शिवपुर में बसत हैं, बन्दूं भक्ति विचार ॥
ॐ ह्रीं अहँ अचलस्थानाय नमः अर्घ्यं ॥१६८ ॥ पर कृत निमत बिगाड है, सोई दुविधा जान। सो तुम में नहीं लेश है, निराबाध परणाम॥
ॐ ह्रीं अहं निराबाधाय नमः अर्घ्यं ॥१६९ ॥