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श्री सिद्धचक्र विधान
जैसे हो तुम आदि में, सोई हो तुम अन्त। एक भाँति निवसो सदा, बन्दत हैं नित सन्त॥
ह्रीं अहँ प्रतात्मने नमः अयं ॥१७० ॥ धर्मनाथ जगदीश हो, सुर मुनि मानें आन। मिथ्यामत नहीं चलत हैं, तुम आगे परमाण॥
___ ॐ ह्रीं अहँ धर्मचक्रिणे नमः अयं ॥१७१॥ ज्ञान शक्ति उत्कृष्ट है, धर्म सर्व तिस माहि। श्रेष्ठ ज्ञान तुम पुञ्ज हो, पर निमित्त कछु नाहिं।
ॐ ह्रीं अहँ चिदांबराय नमः अर्घ्यं ॥१७२॥ . निज अभावसों मुक्त हो, कहैं कुवादी लोग। भूतात्मा सो मुक्त हैं, सो तुम पायों जोग॥
ॐ ह्रीं अर्ह भूतात्मने नमः अयं ॥१७३ ॥ सहज सुभाव प्रकाशियो, पर निमित्त कछु नाहिं। सो तुम पायो सुलभतें, स्व सुभाव के मांहि ॥ . ॐ ह्रीं अहँ सहजज्योतिषे नमः अर्घ्यं ॥१७४॥ विश्व नाम तिहुँलोक में, तिसमें करत प्रकाश। विश्व ज्योति कहलात हैं, नमत मोह तम नाश॥
ॐ ह्रीं अहँ विश्वज्योतिषे नमः अयं ॥१७५॥ परस आदि पन इन्द्रियाँ, द्वार ज्ञान कछु नाहिं। यातें अति इन्द्रिय कहो, जिन-सिद्धांत के मांहि ॥
ॐ ह्रीं अहँ अतींद्रियाय नमः अर्घ्यं ॥१७६ ॥ एक मान असहाय हो, शुद्ध बुद्ध निर अंश। केवल तुम को धर्म है, नमें तुम्हें नित संत॥
ॐ ह्रीं अहँ केवलाय नमः अर्घ्यं ॥१७७॥