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श्री सिद्धचक्र विधान
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निज पर विवेक अन्तर पुनीत, आतम रुचि वरती राजनीत। जगविभवविभावअसातएह,स्वातम,सुखरसविपरीतदेह ॥२॥ तिन नाशन लीनो दृढ़ संभार, शुद्धपयोग चित चरण सार। निग्रंथ कठिन मारग अनूप, हिंसादिक टारण सुलभ रूप॥३॥ द्वयवीस परीषह सहन वीर, बहिरन्तर संयम धरण धीर। द्वादश भावन दशभेदधर्म, विधिनाशनबारह तपसुपर्म॥४॥ शुभदयाहेत धरि समिति सार, मन शुद्धकरण त्रयगुप्ति धार। एकाकी निर्भय निःसहाय, विचरो प्रमत्त नाशन उपाय॥५॥ लखि मोहशत्रुपरचण्डजोर, तिस हननशुकलदलध्यानजोर। आनन्द वीररस हिये छाय, क्षायक श्रेणी आरम्भ थाय॥६॥ बरम गुण थानक ताहि नाश, तेरम पायो निजपद प्रकाश। नव केवललब्धि विराजमान, दैदीप्यमान सोहें सुभान ॥७॥ तिस मोह दुष्ट आज्ञा एकांत, थी कुमति स्वरूप अनेक भांति। जिनवाणी करिताको विहण्ड, करिस्याद्वादआज्ञा प्रचण्ड ॥८॥ बरतायो जग में सुमति रूप, भविजन पायो आनन्द अनूप। थे मोह नृपति उपकरण शेष, चारो अघातिया विधि विशेष ॥९॥ है नृपति सनातन रीति एह, अरि विमुख न राखें नाम तेह। यो तिन नाशन उद्यमसुठानि, आरंभ्यो परम शुक्लसुध्यान॥१०॥ तिस बलकरि तिनकी तिथि विनाश, पायो निर्भय सुखनिधि निवास। यहअक्षयजोतिलई अवाधि, पुनिअंश नव्यापोशत्रुब्याध ॥११॥