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श्री सिद्धचक्र विधान
अन्तराय विधि प्रकृति अपारा, जीवशक्ति घाते निरधारा । ते सब घात अतुल बल स्वामी, लसत अखेद सिद्ध प्रणमामी ॥ ॐ ह्रीं अनन्तवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥४ ॥
रुपातीत मन इन्द्रिय नाहीं, मनपर्यय हू जानत नाहीं । अलख अनूप अमित अधिकारी, नमूं सिद्ध सूक्ष्म गुणधारी ॥ ॐ ह्रीं सूक्ष्मत्वाय नमः अर्घ्यं ॥५ ॥
एक क्षेत्र अवगाह स्वरूपा, भिन्न-भिन्न राजैं चिद्रूपा । निज परघात विभाव विडारा, नमूं सुहित अवगाह अपारा ॥ ॐ ह्रीं परमअवगाहनत्वाय नमः अर्घ्यं ॥६॥
परकृत ऊँच नीच पद नाहीं, रमत निरंतर निज पद माहीं । उत्तम अगुरुलघुगुण भोगी, सिद्धचक्र ध्यावै नितयोगी ।। ॐ ह्रीं अगुरुलघुल्वात्मकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७ ॥
नित्य निरामय भव भय भञ्जन, अचल निरन्तरशुद्ध निरञ्जन । अव्याबाध सोई गुण जानो, सिद्धचक्र पूजन मन मानो ॥ ॐ ह्रीं अव्याबाधत्वाय नमः अर्घ्यं ॥८ ॥
जयमाला- दोहा
जग आरत भारत महा, गारत करि जय पाय । विजय आरती तिन कहूँ, पुरुषारथ गुणगाय ॥१ ॥ पद्धड़ी छन्द
जय करण कृपाण सु प्रथमवार, मिथ्यात सुभट कीनो प्रहार । दृढ़कोट विपर्ययमति उलंघ, पायो समकित थलथिर अभंग ॥