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श्री सिद्धचक्र विधान
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गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन, धवल अक्षत युत अनी। शुभपुष्प मधुकरनितरमैं, चरु प्रचुर स्वादसुविधिघनी॥ वर दीपमाल उजाल धूपायन, रसायन फल भले। करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्म दलसवब दल भले॥१॥ ते कर्मवर्त नशाय युगपति, ज्ञान निर्मल रुप हैं। दुःख जन्म टाल अपार गुण, सूक्ष्म सरूप अनूप हैं। कर्माष्ट विन त्रैलोक्य पूज्य, अदज शिव कमलापती। मुनि ध्येय सेय अभेय चहुँगुण गेह, द्यो हम शुभमती॥२॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्योनमः श्री समत्तबाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्टगुणसंयुक्ताय अनर्घपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥
अष्टगुण अर्घ - चौपाई मिथ्या त्रय चउ आदि कषाया,मोहनाश छायक गुण पाया। निज अनुभव प्रत्यक्ष सरुपा,नमूं सिद्ध समकित गुणभूपा॥
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वाय नमः अर्घ्यं ॥१॥ सकल त्रिधा षट् द्रव्य, अनन्ता, युगपत जानत हैं भगवन्ता। निर आवरण विशद स्वाधीना, ज्ञानानंद परम रस लीना॥ __ॐ ह्रीं अनन्तज्ञानाय नमः अy ॥२॥ चक्षुअचक्षुअवधि विधिनाशी, केवल दर्शजोति परकाशी। सकल ज्ञेय युगपत अवलोका, उत्तम दर्श नमूं सिद्धोंका॥ ___ ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनाय नमः अयं ॥३॥