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श्री सिद्धचक्र विधान
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मोह क्षोभ परशान्त हो, तुम वाणी उरधार। भविजन को सन्तुष्ट कर, भव आताप निवार ।
ह्रीं अहं प्रशान्तगवे नमः अयं ॥३५४॥ बारह सभा सु प्रश्न कर, समाधान करतार। मिथ्यामति विध्वंस करि, बन्दूं मन में धार॥
ॐ ह्रीं अहं प्राश्निकगिरे नमः अध्यं ॥३५५ ॥ महापुरुष महादेव हो, सुरनर पूजन योग। वाणी सुन मिथ्यात तज, पावें शिवसुख भोग। . ॐ हीं अहं याण्यश्रुतये नमः अयं ॥३५६॥ शिवमग उपदेशक सुश्रुत, मन में अर्थ विचार। साक्षात् उपदेश तुम, तारे भविजन पार॥
- ॐ ह्रीं अहं सुश्रुतये नमः अर्घ्यं ॥३५७॥ तुम समान तिहुँलोक में, नहीं अर्थ परकाश। भविजन सम्बोधे सदा, मिथ्यामति को नाश॥
, ॐ ह्रीं अहँ महाश्रुतये नमः अयं ॥३५८॥ जो निज आत्म-कल्याण में, बरतै सो उपदेश। धर्म नाम तिस जानियो, बन्दूं चरण हमेश॥
ॐ ह्रीं अहं धर्मश्रुतये नमः अध्यं ॥३५९॥ जिन शासन के अधिपति, शिवमारग बतलाय। वा भविजन सन्तुष्ट करि, बन्दूं तिनके पाय॥
ॐ ह्रीं अर्ह श्रुतपतये नमः अध्यं ॥३६०॥ धारण हो उपदेश के, केवलज्ञान संयुक्त। शिवमारग दिखलात हो, तुम को बन्दन युक्त॥
ॐ ह्रीं अर्ह श्रुत्यूद्धत्रे नमः अयं ॥३६१ ॥