________________
श्री सिद्धचक्र विधान
त्रिभुवन का ईश्वरपना तुम्हीं में पाया,
त्रिभुवन के पातक हरौ नमो रवि छाया । निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै,
[ १८३
मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुलक्ष्मीरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ४५५ ॥ तुम काल अनन्तानन्त अबाध विराजो,
पर निमित विकार निवार सुनित्य सुछाजो | निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै,
मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुध्रुवाय नमः अर्घ्यं ॥४५६ ॥ तुम क्षायक लब्धि प्रभाव परम गुणधारी,
निवसो निज आनन्द मांहि अचल अविकारी । निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै,
मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुगुणध्रुवाय नमः अर्घ्यं ॥४५७ ॥ तेरम चौदम गुण थान द्रव्य है जैसो,
रहै काल अनन्तानन्त शुद्धता तैसो । निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै,
मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुद्रव्यगुणध्रुवाय नमः अर्घ्यं ॥ ४५८ ॥ फिर जन्म-मरण नहीं होय जन्म वो पाया,
संसार विलक्षण निज अपूर्व पद पाया ।