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श्री सिद्धचक्र विधान
परम्परा इह धर्म को, उपदेशो श्रुत द्वार। भवि भवसागर तीर लह, पायो शिव सुखकार॥
ॐ हीं अहं अर्हवाचे नमः अध्यं ॥३३०॥ . द्रव्य दृष्टि नहिं पुरुष कृत, है अनादि परमान। सो तुम भाष्यौ है सही, यह पर्याय सुजान।
ॐ ह्रीं अर्ह अपौरुषेयवाचे नमः अध्यं ॥३३१॥ नहीं चलाचल होठ हों, जिस वाणी के होत। सो में बन्दूं हों क्रिया, मोक्षमार्ग उद्योत ॥
ॐ ह्रीं अर्ह अचलोष्ठवाचे नमः अयं ॥३३२॥ तुम सन्तान अनादि हैं, शाश्वत नित्य स्वरूप। तुमको बन्दू भावसों, पाऊँ शिव-सुख कूप॥
ॐ ह्रीं अहं शाश्वताय नमः अयं ॥३३३ ॥ हीनाधिक वा और विधि, नहीं विरुद्धता जान। एक रूप सामान्य है, सब ही सुख की खान॥
ॐ ह्रीं अर्ह अविरुद्धाय नमः अध्यं ॥३३४॥ . नय विवक्षते सधत हैं, सप्त भंग निरवाध। सो तुम भास्यो नमतं हूँ, वस्तु रूप को साध॥
ॐ ह्रीं अहं सप्तभंगीवाचे नमः अध्यं ॥३३५॥ अक्षर बिन वाणी खिरे, सर्व अर्थ करि युक्त। भविजन निज सरधानतें, पावै जगते मुक्त॥
ॐ ह्रीं अहं अवर्णगिरे नमः अयं ॥३३६ ॥ क्षुद्र तथा अक्षुद्र मय, सब भाषा परकाश। तुम मुखतें खिरकै करै, भर्म तिमिर को नाश॥
ॐ ह्रीं अहं सर्वभाषामयगिरे नमः अयं ॥३३७॥